
श्रीनाथ जी का प्राकट्य :
श्रीनाथ जी के प्राकट्य के विषय में एक प्रतीकात्मक कथा मार्ष वेदव्यास ने प्रस्तुत की है उन्होंने लिखा है कि एक समय इन्द्र के गर्व को नष्ट करने हेतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की पूजा करवाई और अन्नकूट आयोजित किया गिरिराज पर एक दिव्य देवरूप प्रकट होकर वह भोग-सामग्री स्वीकार करता है जिसमें एक तरफ स्वयं श्रीकृष्ण ब्रजवासियों से पूजा करवाते हैं तथा दूसरी तरफ स्वयं वह समस्त भोग सामग्री स्वीकार कर ब्रजवासियों को इन्द्र के कोप-भाजन से बचाते हैं। वल्लभ सम्प्रदायी चित्रों में उक्त वृत्तान्त को अत्यन्त महत्व के साथ चित्र रूप में साकार किया गया है कृष्ण की गोवर्धन पर्वत से सम्बन्धित लीलाओं के अन्तर्गत दान-लीला, शरत पूर्णिमा, गोपाष्टमी, अन्नकूट आदि प्रमुख पिछवाइयों में इस घटना को पिछवाई-चित्रण के एक प्रमुख अंग के रूप में निर्धारित कर दिया गया जान पडता है । चित्र सं० 61, ।।। श्रीमद्भागवत् में भी उपरोक्त घटना की पुष्टि होती है।
पूजा के पश्चात वह स्वरूप गोवर्धन पर्वत में अन्तर्निहित हो जाता है 1 वही स्वरूप पुनः श्रावण कृष्णा 3, रविवार, विक्रम सं० 1466 81409 ई० को प्रातः गिरिराज जी पर प्रकट होता है । तत्पश्चात श्रावण सुदी नाग पंचमी को अपनी गायों को ढूंढते हुए एक ब्रजवासी ने देखा कि गाय के स्तनों से अविरल दुग्ध धारा प्रवाहित हो एक पत्थर पर गिर रही है । पास आकर देखने पर उसे प्रभु की ऊर्ध्व भुजा के दर्शन होते हैं । ऊर्ध्व भुजा के दर्शन मात्र से ही ब्रजवासी यह मान लेते हैं कि यह वही स्वरूप है जिसने सात दिन तक गोवर्धन को छत्र-रूप में धारण कर हमारी रक्षा की थी।
तदनन्तर विक्रम संवत 1535 81478 ई04 वैशाख कृष्ण। मध्याह्न भगवान के मुखारविंद के प्राकट्य के बारे में कहा जाता है कि आनोर निवासी साधु पाण्डे को सर्व प्रथम श्रीनाथ जी के मुखारविंद के दर्शन हुए थे।
फाल्गुन शुक्ला ।।, गुरुवार संवत् 1549 81492 ई०8 के दिन श्रीनाथ जी ने वल्लभाचार्य को गोवर्धन पर्वत पर आने और सेवा प्रणाली निश्चय करने की आज्ञा प्रदान की । कहा जाता है कि ज्यों ही गोवर्धन पर्वत पर उनके चरण बढ़े श्रीनाथ जी ने स्वयं कन्दरा से प्रकट होकर उनका आलिंगन किया व श्रीनाथ जी विषय रहा है सम्प्रदायी चित्रों का हृदयालिंगन-मिलन वल्लभ1 15 का एक 14 वल्लभाचार्य प्रमुख चित्र तत्पश्चात् श्री वल्लभाचार्य ने एक छोटा सा मन्दिर बनवा कर श्रीनाथ जी के विग्रह को गोवर्धन पर्वत पर स्थापित किया 16 श्री आचार्य जी ने अपने हाथों से श्रीनाथ जी का श्रृंगार कर सर्वप्रथम अन्न का भोग लगाया। जिस दिन श्री आचार्य जी ने भगवत्- स्वरूप का श्रृंगार किया उसी दिन श्रीनाथ जी का दूसरा नाम गोपाल जी रखा । उसी के अनुसार वर्तमान में गोवर्धन की तलहटी में स्थित जत्तीपुरा का प्राचीन नाम “गोपालपुरा” है ।