विभिन्न पुष्टि स्वरूपों का चित्रण

   

श्री मधुरेश जी :

इन्हें श्री मथुरेश जी अथवा श्री मथुराधीश जी भी कहा जाता है । यह चतुर्भुज स्वरूप गहरे भूरे रंग के पत्थर से निर्मित है 1 चारों हाथ चार विभिन्न प्रकार के आयुधों से युक्त है । चित्र सं० 708 यह स्वरूप श्री द्वारिकाधीश जी के स्वरूप से काफी साम्य रखता है । किन्तु मुद्रा भिन्न है । पीठिका के आकार में भी भिन्नता है। श्री द्वारिकाधीश जी की पीठिका ऊपर से वर्गाकार है जबकि श्री मथुरेश जी की गोल है । दाहिनी ओर के ऊपर उठे हुए हाथ में कमल का पुष्प है तथा नीचे वाले हाथ में चक है । इस स्वरूप के चिन्हों की प्रतीकात्मकता श्री द्वारकाधीश जी के समान है। यह स्वरूप श्री वल्लभाचार्य जी को महाबन-रमणस्थल के दूसरी ओर कर्णावत नामक स्थान के निकट यमुना जी से संवत् 1556 -1499  फाल्गुन शु० को प्राप्त हुआ  उन्होंने कन्नोज निवासी पद्मनाभदास को सेवा के निमित्त सौंप दिया था । बाद में इन्हें गो। विठ्ठलनाथ जी ने प्राप्त किया था । घरेलू बंटवारे में इनकी सेवा प्रथम पुत्र श्री गिरिधर जी को दी गई  श्री गिरधर जी ने इसे अपने तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथ जी दीक्षित को सौंप दिया।

श्री मथुरेश जी को औरंगजेब के राज्यकाल में राजस्थान की ओर लाया गया । इस स्वरूप को कुछ समय के लिये बून्दी में रखा गया बाद में राजा दुर्जनशाला दारा 18 वी शताब्दी के प्रारम्भ में कोटा ले जाया गया । मूर्ति को जतिपुरा ब्रज से हटाने पर एक विवाद छिड़ गया । इस गृह के गो० रणछोड़ लाल जी इन्हें कोटा से गोवर्धन ले गये । परन्तु कुछ वर्षों पूर्व इनको एक बार पुनः कोटा में प्रतिष्ठापित किया गया । श्री मथुरेश जी के गोद के ठाकुर जी श्री नटवरलाल जी थे जिनका स्वरूप वर्तमान में अहमदाबाद में स्थित है । 19 वीं शताब्दी में कोटा में श्री मथुरेश जी की अनेकों श्रृंगार छवियां स्थानीय चित्रकारों दारा अंकित की गई ।

श्री विठ्ठलनाथ जी:

महाराष्ट्र के पंढरपुर में पूजित जी है जो विष्णु का एक अन्य स्वरूप है भगवान विढोवा का नाम ही विठ्ठलनाथ श्री वल्लभाचार्य ने अपनी तीसरी यात्रा के अनन्तर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध तीर्थ पंढरपुर की यात्रा की थी वहीं उन्हें विवाह 36 करने का ईश्वरीय, आदेश भी प्राप्त हुआ था । यह स्वरूप सदा अपनी रानी रुकमणी के साथ रखा जाता है । यह मूर्ति गंगा नदी से एक संन्यासी दारा प्राप्त की गई थी। जिसे उसने वल्लभाचार्य को भेंट कर दी थी। यह घटना उस दिन 37 घटी जिस दिन उनके दूसरे पुत्र का जन्म हुआ था । इसी कारण श्री वल्लभाचार्य ने अपने इस पुत्र का नाम विठ्ठलनाथ रखा। इसके पीछे उनकी मान्यता थी कि उनका पुत्र विठ्ठलनाथ जी का अवतार है । 1581 ई० में इस स्वरूप को कोटा ले जाया गया । इसके उपरान्त जब श्रीनाथ जी नाथद्वारा में आये तो विठ्ठलनाथ जी को भी नाथद्वारा में श्रीनाथ जी की हवेली के समीप ही हरिराय जी द्वारा पृथक हवेली निर्मित कर प्रतिष्ठापित किया गया ।

1802 में मराठों के आक्रमण के भय से श्रीनाथ जी एवं श्री विठ्ठलनाथ जी को उदयपुर में स्थानान्तरित किया गया । वहां से विठ्ठलनाथ जी को कोटा ले जाया गया, वहां वे सन् 1822 तक रहे । उसके उपरान्त उनको पुनः नाथदारा में स्थाई रूप से प्रतिष्ठापित किया गया ।

सम्प्रदाय में विठ्ठलनाथ जी को दितीय निधि के रूप में जाना जाता है। क्योंकि विठ्ठलनाथ जी द्वारा ये स्वरूप अपने दितीय पुत्र गोविनदराय जी को भेंट किया गया था ।

धातु निर्मित लगभग 10 से०मी० ऊंची इस मूर्ति की मुद्रा का सम्प्रदाय के अनेक विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से विवेचन किया है, यह कहा जाता है कि यह स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को उनके विरहीं रूप में प्रदर्शित करता है  अपनी प्रेयसी को वृन्दावन के कुंजों में खोजते विरही कृष्ण थक हार कर अपने दोनों हाथों को छाती पर टिका देते हैं । 

 

श्री द्वारकाधीश जी :

श्यामवर्णी पत्थरर से दृष्टि में श्री मथुरेश जी के स्वरूप निर्मित भगवान विष्णु का यह चतुर्भुज स्वरूप प्रथम से काफी साम्य रखता है 1 चित्र सं0 43,678 दोनों स्वरूपों में मुख्य अन्तर पीठिका के आकारों का है । श्री मथुरेश जी की पीठिका का ऊपरी हिस्सा गोल है जबकि श्रीद्वारकाधीश जी का चौकोर है, इनके हाथों में धारण किये आयुधों में ही भिन्नता है । इसी आधार पर सप्तस्वरूपोत्सव के चित्रों में इन्हें अलग अलग पहचाना जा सकता है। चित्र सं0 53,91,1178

वार्ता के अनुसार यह स्वरूप श्री वल्लभाचार्य जी को कन्नोज निवासी नारायणदास दर्जी से प्राप्त हुआ था । भगवान विष्णु ने स्वप्न में उसे आदेश दिया कि मेरी मूर्ति जो कि अर्बुदाचल पर्वत ४ वर्तमान के आबू पर्वत ४ के एक जीर्ण-शीर्ण मन्दिर में स्थित है, को यहां पुनः स्थापित करें । स्वप्न में मिले आदेश के अनुसार वह दर्जी मूर्ति को अपने साथ कन्नौज ले गया अपनी एक यात्रा के अनन्तर जव श्री वल्लभाचार्य जी कन्नोज गये उन्होंने वहां के राजा के प्रधानमंत्री दामोदरदास सम्भरवाल को आदेश दिया कि तुम नारायणदास दर्जी से वह स्वरूप प्राप्त करो और उसकी सेवा करो । उन्होंने मूर्ति के साक्षात्कार तथा अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर उसे समझाया कि यह स्वरूप भगवान कृष्ण को राधिका तथा अन्य गोष-वालाओं के साथ आंख मिचौनी खेलते हुए प्रदर्शित करता है । 

जब राधा तथा उनकी सखियां यमुना नदी के किनारे एक वृक्ष तले बैठी थी, कृष्ण ने पीछे से आकर राधा की दोनों आंखे अपने हाथों से बन्द कर दी उन्होंने अपने भावों की विशेष मुद्रा से यह संकेत दिया कि वे राधा को न बताएं। राधा को भ्रम में डालने के लिये कृष्ण ने अपनी ईश्वरीय शक्ति से दो अतिरिक्त हाथ सृजित कर लिये तथा उनमें बांसुरी थाम उसकी स्वर लहरी के माध्यम से पूछा कि मैं कौन हूँ । राधा ने तुरन्त ही कृष्ण को भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप में पहचान लिया । यह भगवान कृष्ण का वही चतुर्भुज रूप है । वल्लभ सम्प्रदायी कृष्ण लीला के चित्रों में भी “आंख मिचावनी लीला” विषयक चित्र में दारकाधीश के स्वरूप में नीहित उपरोक्त भाव को चित्रित किया जाता है  कांकरोली स्थित द्वारिकाधीश जी की मन्दिर-हवेली में प्रतिवर्ष दिवाली से पूर्व भित्ति चित्र के रूप में यह चित्र-विषय विशाल भित्ति पर रूपायित किया जाता है । 

विभिन्न प्रकार के आयुध जो इस स्वरूप ने धारण किये हुए हैं । उनकी व्याख्या इस कथा से संबधित है । मूर्ति के नीचे के दाहिने हाथ में एक कमल का पुष्प है जो कि राधा की हथेली का प्रतीक है जिससे वह कृष्ण के हाथों को अपनी आंखों से दूर हटाने का प्रयत्न कर रही है । ऊपर के दाहिने हाथ में एक गदा प्रदर्शित है । जब राधा कृष्ण को ईश्वरीय चतुर्भुज रूप में पा कर उनका आलिंगन करना चाहती है आंलिंगन करने के लिये उठे हुए हाथ की प्रतीकात्मक उपस्थिति यहां गदा के रूप में प्रदर्शित है । ऊपर के बायें हाथ में एक चक्र है, वह इस आलिंगन के दौरान राधा के कंगन का प्रतीकात्मक चिन्ह है । नीचे का बायां हाथ जिसमें एक शंख है व राधा की गर्दन का प्रतीक है ।

श्री दारकाधीश जी का यह स्वरूप कृष्णदास की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी दारा श्री वल्लभाचार्य जी को भेंट किया गया 1 जब विठ्ठलनार्य जी दारा अपने पुत्रों में सात स्वरूपों का बंटवारा किया गया तब यह स्वरूप बाल कृष्ण जी  को प्रदान किया गया था । यह स्वरूप औरंगजेब के काल तक गोकुल में स्थित रहा कारण सन् बाद में मुगलों की हिन्दू धर्म विरोधी नीति तथा पारिवारिक विवादों के 1670 में इस स्वरूप को अहमदाबाद में स्थानान्तरित कर दिया गया। बाद में वहां से भी मेवाड़ में उदयपुर के निकट आसोटिया नामक गांव में प्रतिष्ठित कर दिया गया । जहां वह सन् 1719 तक रहा तत्पश्चात् इसे नाथद्वारा के समीप कांकरोली की भव्य हवेली में स्थापित किया गया जहां यह आज तक स्थित् है । 

श्री गोकुलनाथ जी :

यह धातु निर्मित भगवान् श्रीकृष्ण का चतुर्भुज स्वरूप है । इस छोटे आकार की मूर्ति के दायें हाथ में लड्डू है या एक अन्य व्याख्या के अनुसार यह गिरिराज पर्वत है तथा नीचे के बाये हाथ में शंख हैं वादन कर रहे हैं 1 उनके दोनों ओर दो जो राधा एवं चन्द्रावली है । अपने अन्य दो हाथों से वे बांसुरी सेविकाएँ हाथों में चंवर पकड़े हुए है

आरम्भ में इस स्वरूप की सेवा श्री वल्लभाचार्य की सुसराल में होती थी तथा विवाह के समय यह उन्हें अन्य चार मूर्तियों के साथ दी गई थी । गुसाईजी ने इनकी सेवा अपने चतुर्थ पुत्र श्री गोकुलनाथ जी को दी थी । औरंगजेब के राज्यकाल मैं मूर्ति को जयपुर में स्थानान्तरित किया गया किन्तु 19 वीं शताब्दी के मध्य इन्हें पुनः गोकुल ले जाया गया तथा ।5।। ई0 के लगभग निर्मित एक हवेली 45 में प्रतिष्ठित किया गया । इस समय यह स्वरूप चतुर्थ गृह की गद्दी के अन्तर्गत गोकुल में विराजमान है ।

गोकुलचन्द्रमा जी

यह स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी वादक के रूप में उनकी चिरपरिचित त्रिभंगी मुद्रा में प्रदर्शित से श्री नवनीतप्रिया जी, के साथ प्राप्त हुआ । करता है जो कि एका नामक एक क्षत्राणी को यमुना नदी श्री लाडलेश जी तथा श्री ललित त्रिपुभंगी जी की मूर्तियों  श्री आचार्य जी ने अपने एक सेवक नारायणदास ब्रह्मचारी को सेवा के निमित श्री गोकुलचन्द्रमा जी का स्वरूप प्रदान कर दिया था जो उनकी मृत्यु के पश्चात् पुनः आचार्य जी को सौंप दिया गया । कई वर्षों के उपरान्त विठ्ठलनाथ जी ने अपने पांचवे पुत्र रघुनाथ जी को यह मूर्ति सौंप दी । 

औरंगजेब के शासनकाल में सुरक्षा की दृष्टि से यह स्वरूप जयपुर ले जाया गया । सन् 1687 में गोस्वामी गोविन्द लाल जी और महाराजा रामसिह के मध्य किसी विवाद के कारण मूर्ति को बीकानेर ले जाया गया बीकानेर के राजा सरदार सिंह पुष्टिमार्गीय कृष्ण – भक्ति का अनन्य अनुयायी था । श्री गोकुलचन्द्रमा जी बीकानेर में राजकीय आदर सत्कार के साथ छः वर्षों तक विराजे तथा परिस्थितियों को अनुकूल जान पुनः उन्हें ब्रज के कामवन ले जाया गया जहां वह अब तक प्रतिष्ठित है। 

 

श्री बालकृष्ण जी :

यह स्वरूप भगवान् कृष्ण को शिशु रूप में प्रदर्शित करता है । धातु निर्मित यह छोटे आकार की मूर्ति श्री नवनीतप्रिया जी के स्वरूप से काफी साम्य रखती है। इसे श्री विठ्ठलनाथ जी ने अपने छोटे पुत्र यदुनाथ जी को दी थी । मूर्ति का आकार छोटा होने के कारण वे इसे पाकर खुश नहीं हुए 149 यदुनाथ जी अपने बड़े भाई बालकृष्ण जी के साथ मिलकर श्री दारकाधीश जी के साथ बालकृष्ण जी का स्वरूप पधरा कर साथ-साथ सेवा करते थे किन्तु इनके पश्चात् इनके वंशजों में मतभेद पैदा हो जाने पर श्री बालकृष्ण जी के स्वरूप को कांकरोली से हटा कर सूरत मे स्थापित किया ।

श्री मदनमोहन जी :

गो० विठ्ठलनाथ जी ने परिवार की सम्पत्ति के विभाजन के समय इस स्वरूप को अपने सातवें पुत्र घनश्याम जी को प्रदान किया था । यह स्वरूप भगवान्  की वेणुवादन की मुद्रा में युक्त है । इन दो में से एक है  यह स्वरूप अपने दोनों ओर दो सखियों से को आन्तरिक कलह के कारण चुरा लिया गया था । यह चुराई गई मूर्ति सिंध की एक वैष्णव महिला के पास पहुंचा दी गई। उस महिला ने इस मूर्ति की निर्यामत सेवा की । यह वैष्णव को समीप जान जीवन के अन्तिम काल में नाथदारा चली आई महिला अपनी मृत्यु सन् 1689 में वह मूर्ति उसके पास से प्राप्त हुई जिसे नाथद्वारा आकर घनश्याम जी के उत्तराधिकारी पुनः अपने साथ ले गये  वर्तमान में यह मूर्ति कामवन में मदन मोहन जी तथा उनकी दूसरी प्रिय गोपी के साथ विराजमान है । 

श्री घनश्याम जी के वंशजों ने औरंगजेब काल में श्री मदनमोहन जी के स्वरूप को गोकुल से हटा कर पहले जयपुर में और फिर बीकानेर में प्रतिष्ठित किया गया था । बाद में श्री गोकुल चन्द्रमा जी के साथ श्री मदनमोहन जी भी बीकानेर से हटा कर कामवन में प्रतिष्ठित किये गये थे । वर्तमान में यह स्वरूप सातवें घर की कामवन गद्दी के मन्दिर में ही विराजमान है वल्लभ सम्प्रदाय के अनेक चित्रों में जहां कृष्ण को बांसुरी वादन की मुद्रा में चित्रित किया गया है श्री मदन मोहन जी के स्वरूप को ही चित्र रूप में प्रस्तुत किया गया है ।

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